प्राचीन भारत में शिक्षा की वृद्धि और विकास का इतिहास
18 वीं शताब्दी में भारत में हिंदू और मुस्लिम शिक्षा केंद्र लुप्त हो गए थे। देश में अनेक राजनैतिक उथल-पुथल के कारण ऐसी अवस्था हो गई थी जी शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही विद्या उपार्जन में ना लग सके। 21 फरवरी 1784 को लिखे एक पत्र में वारेन हेस्टिंग्स ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि उत्तर के सभी प्रमुख नगरों में विद्यालय धन जन और भवन सभी प्रकार के अभाव खराब अवस्था में है।
यद्यपि कंपनी 1765 से राज्य करने लगी थी परंतु उसने समकालीन इंग्लैंड की परंपरा के अनुसार विद्या आभार निजी हाथों में ही रहने दिया फिर भी समय-समय पर कंपनी के अधिकारी कोट ऑफ डायरेक्टर का ध्यान इस ओर आकर्षित करते रहे। 1781 वारेन हेस्टिंग ने कोलकाता मदरसा स्थापित किया फारसी और अरबी का था। 17 साल का 90 मैं बनारस की ब्रिटिश रेजीमेंट श्री डंकन के प्रयत्नों के फल स्वरुप बनारस में एक संस्कृत की स्थापना की गई। जिसका उद्देश्य हिंदुओं के धर्म और कानून का अध्ययन और प्रसार करना था। इन प्राचीन विद्या की प्रचार के लिए किए गए आरंभिक प्रयत्न अधिक सफल नहीं हुए। प्राय शिक्षक अधिक और विद्यार्थी कम होते थे।
1800 लॉर्ड वेलेजली ने कंपनी के असैनिक अधिकारियों के लिए फोट विलियम कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज में अंग्रेजी हिंदुस्तानी कोष और हिंदुस्तानी व्याकरण तथा कुछ अन्य पुस्तकें प्रकाशित की। परंतु यह कॉलेज 18 शब्दों में डायरेक्टरों की आज्ञा से बंद कर दिया गया।
1813वके चार्टर एक्ट में एक लाख रुपया, भारत में विद्या प्रसार के लिए रखा गया। यह धन , साहित्य पुनरुद्धार और उन्नति के लिए भारत के स्थानीय विद्वानों
को प्रोत्साहन देने के लिए और अंग्रेजी देशवासियों में विज्ञान के आरंभ और उन्नति के लिए निर्धारित किया गया था। कंपनी को अपनी प्रशासनिक आवश्यकता ओं के लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता थी जो शास्त्री और स्थानीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता हो। न्याय विभाग में संस्कृत और अरबी भाषा के गानों की आवश्यकता थी ताकि वे लोग अंग्रेज न्यायाधीशों के साथ परामर्शदाता के रूप में बैठ सके और हिंदी तथा मुस्लिम कानून की व्याख्या कर सकें। भारतीय रियासतों के साथ पत्र व्यवहार करने के लिए राजनीतिक विभाग को फारसी पढ़े-लिखे व्यक्तियों की आवश्यकता थी। भूमि कर विभाग में देशी भाषाओं के ज्ञाताओं की आवश्यकता होती थी। कंपनी के ऊंचे पदों के कार्यकर्ताओं के लिए अंग्रेजी और देसी भाषाओं का जानना अति आवश्यक था।
पश्चिमी विद्या की लोकप्रियता कब पढ़ना और राजाराम मोहन राय जिन कारणों से फैसला पाश्चात्य और अंग्रेजी भाषा के पक्ष में हुआ था मुख्यतः आर्थिक। भारतीय लोग ऐसी शिक्षा चाहती थे जो उन्हें अपनी जीविका उपार्जन करने में सहायता करें। उन्नति शील भारती तत्व भी अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य विद्या का प्रसार चाहते थे। राजा राममोहन राय ने कोलकाता मदरसे बनारस संस्कृत कॉलेज खोलने की सरकार के प्रयत्नों की कड़ी आलोचना की।
अंगल प्राच्य विवाद
लोक शिक्षा की समिति में 10 सदस्य थे। उनमें दो दल थे। एक प्राच्य विद्या समर्थक दल था जिसके नेता एच टी प्रिंसेप थे। यह लोग प्राची विद्या को प्रोत्साहन देने की नीति का समर्थन करते थे दूसरी ओर मंगल दल जो अंग्रेजी शिक्षा को समर्थन देता था। दोनों दलों के बराबर होने के कारण यह समिति ठीक ढंग से कार्य नहीं कर सकती थी। प्रायः गतिरोध हो जाता था अंत में दोनों दलों ने अपना विवाद निर्णय के लिए गवर्नर जनरल के सम्मुख रखा। कार्यकारणी परिषद का सदस्य होने के अधिकार से 2 फरवरी 1835 को लॉर्ड मैकाले ने आंग्ल दल का समर्थन किया।
विलियम बेंटिक की सरकार ने 7 मार्च 1835 के प्रस्ताव मैकाले का दृष्टिकोण अपना लिया कि भविष्य में कंपनी की सरकार साहित्य को अंग्रेजी माध्यम द्वारा उन्नत करने का प्रयत्न करें और सभी धन रशिया इसी को दी जानी चाहिए ऐसा आदेश दिया।
जो मैकाले की पद्धति एक क्रमबद्ध प्रयत्न था अंग्रेजी सरकार ने भारत के उच्च वर्ग को अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षित करने का प्रयत्न किया। मैकाले का उद्देश्य जनसाधारण को शिक्षित करना नहीं था। वॉइस पर से जानता था कि सीमित साधनों के समस्त जनता को शिक्षित करना असंभव है। वह वीप्रिवेशन सिद्धांत में विश्वास करता था की अंग्रेजी पढ़े लिखे लोग एक दुभाषी श्रेणी के रूप में कार्य करेंगे और भारतीय भाषाओं और साहित्य को समृद्ध साली बनाएंगे और इस प्रकार पाश्चात्य विज्ञान तथा साहित्य का ज्ञान जनसाधारण तक पहुंच जाएगा। इस प्रकार मैकाले कि इस सिद्धांत का प्राकृतिक परिणाम भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी भाषा के सहायक के रूप में बढ़ावा देना था।
इसके पश्चात सरकार ने देशी भाषाओं के विकास के लिए कुछ प्रयत्न किए और इन भाषाओं के साहित्य का विकास जनता की आवश्यकता और तथा उनकी कल्पना शक्ति पर छोड़ दिया।