गोरखा काल में लगाए गए कर
किसी भी अथवा शासक के लिए राजकोष भरना आवश्यक होता है। बिना राजकोष के राज्य नहीं चलता है। गोरखा शासक ने इस नीति का पालन किया और रैयत पर अनेक कल लगाए । यह कर गोरखा की का प्रमुख साधन थे। उनसे पूर्व उत्तराखंड में राज कर रहे चंद शासकों ने 36 रकम 32 कलम वाले अनेक का कर लगाई थे। चंद्र शासकों में लक्ष्मीचंद ऐसा राजा जिसके करो के भय से लोगों ने छतों में मिट्टी डालकर साग सब्जी लगाना प्रारंभ कर दिया। गोरखा ने कुछ कर पुराने और कुछ तत्कालीन कारणों की ओर ध्यान देते हुए कुछ नए कर लगाए । नए करो में ब्राह्मणों में "कुशही" नामक का लगाया जो जूलिया 260 नाली तक जमीन हत्याई हुए ब्राह्मणों पर ₹5 प्रति मवासा लगाया गया। गोरखा ने कुमाऊं व गढ़वाल में छत पर चढ़ने वाली महिला को दंडित करने के लिए जुर्माने के रूप में कर लगाया।
गोरखा द्वारा उत्तराखंड में कई प्रकार के कर लगाए गए थे जैसे
पुगड़ी कर जो एक प्रकार का भूमि कर था। इस ग
कर से लगभग डेढ़ लाख रुपया सालाना की आय होती थी। सैनिकों का वेतन किस कर से दिया जाता था।
सलामी कर एक प्रकार का नजराना कर था।
टीका भेंट शुभ अवसरों शादी विवाह के समय इस कर को लिया जाता था।
तीमारी कर यह कर फौजदार को चारा आना व सूबेदार दो ना देना पड़ता था। 1811 में काजी बहादुर भंडारी वह दशरथ खनवी ने दर तय की थी। किंतु फिर भी इसका पालन नहीं होता था।
पगरी या पगड़ी गोरखा की सनदो में का उल्लेख बार बार आया है। यह संभवत जमीन व जायदाद हस्तांतरण में जमीन प्राप्त करने वाले व्यक्ति को देना पड़ता था और यह राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था।
मांगा प्रत्येक नौजवान से ₹1 कर के रूप में लिया जाता था।
सुवांगी दस्तूर यहां प्रत्येक बिसी भूमि पर एक रुपया लिया जाता था।
मेजबानी दस्तूर यह ढाई आना होता था।
सोनिया फागुन उत्सव का खर्चा। इसमें भेस व बकरी लिए जाते थे। गोरखा लोग सावन, दसाई दशहरा व फागुन के उत्सव में भैंसों की बलि देते थे उनके मांस को बड़े चाव से खाते थे।
तान कर इसे कपड़ा कर भी कहते हैं। हिंदू और भूटिया से लिया जाता था।
मिझारी शिल्प कर्मियों तथा जगरिया ब्राह्मणों से से लिया जाता था।
मरो पुत्र विहीन व्यक्ति से यह कर लिया जाता था।
रहता ग्राम छोड़कर भागे हुए लोगों पर यह कर लगाया जाता था।
बहता छिपाई गई संपत्ति पर यह कर लिया जाता था।
घी कर दुधारू पशुओं मालिक से यह कर लिया जाता था ।
मोकर यह प्रति परिवार दो रुपया कर था। इसे चनदो ने भी लगाया था। इसे घरही पिछाई भी कहते है।
अधनी दफ्तरी यह राजस्व का काम करने वाले कर्मचारियों के लिए खास जमीदारों से लिया जाता था
जान्या सुन्या राज कर्मचारियों से लगान के बारे में पूछने पर कर देना पड़ता था।
उपरोक्त करो के अलावा ऊपरी रकम, बक्शीश, कल्याण धन, केरु, घररू, खुना, आड़ी कर भी लिया जाता था। रात को चुकाने में असमर्थ व्यक्तियों को मैदान की अलग-अलग मंडियों में ले जाकर दस से लेकर बिस की कीमत में बेचा जाता था। जिन्हें प्रयोग हरिद्वार की मंडी पर बेचा जाता था। गोबर और पूछिया नाम के के भी थे। हेडी ओर मेवाती भाबर में दोनिया नाम का कर पहाड़ी पशु चारों को से वसूल करते थे।