13 Feb 2021

प्राचीन भारत में भूमि स्वामित्व

प्राचीन भारत में भूमि स्वमित्व ओर भूमि के प्रकार

कृषि योग्य  भूमि के स्वामित्व के विषय में  विद्वानों   तीन मत है कि प्रत्येक भूमि खंड का स्वामी  वह  किसान होता है जो उस पर खेती करता था।  कुछ अन्य विद्वान कहते हैं कि खेतों की स्वामी  ग्राम ए पूरे निवासी होते थे। कुछ अन्य विद्वान कहते हैं कि भारत में सदा से ही भूमि  स्वामी वह शासक  होता था जिस पर वह राज्य करता था।


व्यक्तिगत विशेष का    स्वामित्व
रामशरण शर्मा का मत है कि भूखंड का स्वामी रिग वैदिक काल में व्यक्तिगत विशेष ना होकर पूरा कबीला होता था। इसलिए केवल    वंश अनुमति से ही कोई  व्यक्ति भूखंड को अन्य व्यक्ति को दे सकता था परिवार के व्यक्ति मिलकर खोकन पर खेती करते थे।
ऋग्वेद में खेतों के नापी जाने और खेत के युद्ध में जितने का वर्णन मिलता है।   अपाला ने अपने पिता के खेत का स्पष्ट किया है।
उपनिषद में स्पष्ट है कि एक भूमि खंड का  स्वामी एक व्यक्ति समझा जाता था उदाहरण के लिए     संहिता में लिखा है यदि एक व्यक्ति का प्रेम पड़ोसी से भूखंड के विषय में झगड़ा हो तो उसे 11  थिकरो   इंद्र और अग्नि   आहुतियां   देनी चाहिए।
शतपथ ब्राह्मण में भूखंड के बेचने का विरोध किया गया है इससे भी  भूखंडों के अलग-अलग स्वामी होते थे।
प्राचीन बौद्ध साहित्य में  खेत पति, खेत्समित, वाथपती शब्द प्रयुक्त किए गए हैं   जिससे स्पष्ट होता है की भूखंडों के अलग-अलग स्वामी होते थे, अलग-अलग स्वामी के खेतों को अलग करने के लिए सीमाएं बनाई जाती थी। यदि कोई व्यक्ति   दूसरों  के खेत में सुधार भी करता है  तो उसका स्वामित्व खेत पर नहीं माना जाता था।
विनय पिटक से स्पष्ट है कि इस काल में भूखंडों को भेजा जाता था और गिरवी रखा जाता था। प्राचीन बौद्ध धार्मिक साहित्य से  स्पष्ट है कि जिस प्रकार पशु आदि चल और मकान आदि अचल संपत्ति पर किसी व्यक्ति का स्वामित्व माना जाता था,   उसी प्रकार  भूखंड  पर भी इसका स्वामित्व माना जाता था।
प्रारंभ में जंगल को साफ कर खेती करता था वही उस भूखंड का स्वामी माना जाता था।

प्राचीन काल में दूसरे व्यक्ति के भूखंड   की चोरी का वर्णन भी मिलता है।  मौर्य काल में अधिकतर मैं अधिकतर किसान भू राजस्व खो देते थे। उस समय कोई बिजोलिया नहीं होता था।
अगर बात करें तो प्राचीन जैन साहित्य  पांचवी ई  तक पता नहीं किया गया था किंतु उसमें भी भूखंडों की स्वामी की विषय में अनेक उदाहरण मिलते हैं।
कौटिल्य ने भूमि की बिक्री के संबंध के मुकदमे के संबंध में कि स्वामी का उल्लेख किया है उसने लिखा है कि एक व्यक्ति खेत के स्वामी की अनुमति के बिना अपने पशु उसके खेत में होकर निकाला रहा था।
अर्थशास्त्र  में  सीमा संबंधी का उल्लेख है दूसरे के खेत पर के लिए कुआं या नाली आदि बनाने की नियम दिए हैं। इससे स्पष्ट होता  है खेत का एक स्वामी होता था। अटल जी ने किन को बेचने और गिरवी रखने के लिए दिए हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे के गेट पर जबरदस्ती अधिकार कर ले तो  उसकी दंड का भी उल्लेख किया गया है।
मनु के अनुसार खेत का स्वामी वह व्यक्ति होता है जिसने जंगल साफ कर उस भूमि को कृषि योग्य बनाया हो।
मनु स्मृति में लिखा है कि राजा एक, दस  बीस ओर एक हजार  गांव का राजस्व या  राज कर्मियों को कुछ भूखंड दे सकता था। 
नासिक की गुफा की एक अभिनीत से ज्ञात होता है कि पास अपने कुछ बच्चों को वस्त्र दान में देने के  लिए एक खेत में दान दिया था।
प्रारंभ में जंगल साफ करके एक व्यक्ति खेती करता था वह उस भूखंड का स्वामी माना जाता था किंतु जब कृषि योग्य भूमि की मांग बढ़ी तो केवल खेत पर अधिकार होना ही प्राप्त ना समझा गया घर पर भी आवश्यक माना गया। दिव्यावदान  ने ऐसे अनेक किसानों का उल्लेख है जो   बड़े परिश्रम  से अपने  खेतों पर करते थे।
गौतम और मनु के अनुसार का प्रयोग अपनी इच्छा अनुसार कर सकता था । बहुत से भेज सकता था, दान में दे सकता था ओर  गिरवी रख सकता था।
मीमांसा सूत्र के टीका कार सबर स्वामी के अनुसार  राजू को उपज  का एक भाग लेने का अधिकार है की फसल की रक्षा करता है। सब व्यक्तियों का भूमि पर उसी प्रकार स्वामित्व हो सकता है जैसे राजा का।

राजा को भूमि पर स्वामित्व
प्रारंभ में भूमि पर  पूरे  कबीले का स्वामित्व समझा जाता था रिग वैदिक काल के आरंभ में  कबीले का नेता राजा कहा जाता था इसलिए के लिए गोप और गोपति शब्द का उल्लेख हुआ है। उसे भूपति नहीं कहा गया है। पहले मनु ने राजा को महिपति या भूपति कहां है। इसका अर्थ यह है कि राजा को पृथ्वी का स्वामी नहीं माना जाता था
परंतु ऋग्वेद में स्वामी अलग अलग होने का वर्णन है प्रारंभ में राजा को पूरे गांव का स्वामी इसलिए माना गया क्योंकि वह समुदाय विशेष का अध्यक्ष होता था राजा और समुदाय के अधिकार का विभाजन हुआ राजा जी कुछ विशेषाधिकार माने जाने लगे।
यद्यपि भूखंड का स्वामी एक व्यक्ति समझा जाता था राजा पृथ्वी की रक्षा करता है भूमि प्रति प्रति प्रति आदि कह लाता था। अतः राजा को भी आंशिक रूप से पृथ्वी का स्वामी समझा जाता था। मनु ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए है।
अर्थशास्त्र में दो प्रकार की कृषि योग्य भूमि का उल्लेख है। एक वह  भूमि इसमें राजा के अपने खेत होते थे और  दूसरी   वह भूमि राजा को राजस्व प्राप्त होता है। पहले प्रकार की खेतों से जो आय प्राप्त होती थी कौटिल्य ने सीता शब्द का प्रयोग किया है भू राजस्व विभाग शब्द के अंतर्गत किया गया है  कृषि के  अधीक्षक  के द्वारा जो आय प्राप्त होती थी उसे ही  सीता कहां गया।
130 ई के पश्चिमी   दक्षिणा पथ के सातवाहन अभिलेख से ज्ञात होता है राजा बंजर भूमि के टुकड़े को खेती करने के लिए कुछ बौद्ध भिक्षु को दिया था ऐसी दशा में यदि ई वाला व्यक्ति दान में प्राप्त भूखंड खेती ना करे तो उसे  राजा स्वयं  उसे वापस ले सकता था। यह राजा केवल दान देने के लिए ही भूमि खंड खरीद सकते थे ।
बृहस्पति ने लिखा है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में राजा एक  व्यक्ति  का दूसरे व्यक्ति को दे सकता था। परंतु उसके अनुसार भी राजा को किसी व्यक्ति के कन्नू को आ कारण उसे व्यक्ति को नहीं देना चाहिए।
अर्थशास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि जिस भूमि खंड के स्वामित्व के विषय में झगड़ा हो और झगड़े वाले दोनों पक्ष या ग्राम वृद्ध ना कर सके तो उस भूखंड का स्वामी राजा होता था।  यदि कोई भूखंड के स्वामी का कोई वंशज ना हो तो स्वामी की राजा होता था। अर्थशास्त्र में यह भी नियम दिया है कि जब कभी किसी भूखंड की नीलामी द्वारा विक्री हो तो राजा को उस पर  उपकार लेने काअधिकार लेन है।
राजा  भूमि के स्वामी से जो भू राजस्व लेता था उसे भाग कहा जाता था। इस शब्द से स्पष्ट है कि खेती योग्य भूमि पर राजा का आंशिक स्वामित्व माना जाता था। राजा चिंताओं को दान में देता था भू राजस्व प्राप्त करने वाले व्यक्ति को मिलता था।  परंतु दान पाने वाला व्यक्ति यदि दान पत्र की शर्तों को पूरा ना करें तो  दान में दिए  गांव को वापस लेने का अधिकार राजा का होता था।
मनु स्मृति में लिखा है दबे हुए जो खजाने मिली और  खजानो में प्राप्त वस्तुओं में राज्य का एक ख्वाब होता था।
मेगस्थनीज के आधार पर  स्टेबो  ने लिखा है कि भारत में सभी भूमि राजा की होती थी अन्य व्यक्ति भूमिका स्वामी नहीं हो सकता था।

कृषि योग्य भूमि पर सामुदायिक स्वामित्व

उत्तर वैदिक साहित्य से पता चलता है कि बिना विश की अनुमति  के  भूमि अपनी व्यक्ति को नहीं दी जा सकती थी। इससे यह पता चलता है कि उस समय भूमि का स्वामी विश्  होती थी व्यक्ति विशेष।
जिस प्रदेश में बौद्ध धर्म का उदय हुआ वहां ग्राम के समुदाय कृषि योग्य खेती के स्वामी माने जाते थे।
स्ट्रबो  के अनुसार    पंजाब  में  कुछ   कबीलो  के परिवार मिलकर  खेती करते थे  जब फसल कट जाती थी तो  प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ष  भर  के निर्वाह के लिए नाच ले जाता था। परंतु अर्थशास्त्र में  सामुदायिक   स्वामित्व   का  स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
बंगाल की पांचवी तथा छठी शताब्दी   ताम्र    लेख ज्ञात होता है कि जब कोई व्यक्ति भूमि खंड खरीद कर   दान में चाहता है  तो  उसे  भक्ति प्रशासकीय अधिकारियों को प्रार्थना पत्र देना ही होता था साथी  ही  साथ ग्राम के    वृद्ध को भी प्रार्थना पत्र देना होता था। इनमें तीन प्रकार की भूमि का उल्लेख है कृषि योग्य, मकान बनाने योग्य,  और  परती । एक अभिलेख में लिखा है कि बिक्री मूल्य का छठा भाग सरकार को मिलेगा।
कुणाल जातक से ज्ञात होता है कि  शाक्य ओर  कोलियो  के सामुदायिक खेत थे।  सामुदायिक खेतों के स्वामी कुछ राजकुल होते थे। उन्होंने खेती का निरीक्षण करने के लिए कुछ अधिकारी नियुक्त किए थे।
भूमि के प्रकार

वैदिक साहित्य में तीन प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है  मकानों की भूमि, कृषि योग्य और चारागाह  ऋग्वेद  के  दो  सुक्तो से स्पष्ट है की मकानों को  स्वामियों की निजी संपत्ति समझा जाता था। इन दोनों रूपों में मकानों का स्वामी  अपनी रक्षा और समृद्धि के लिए प्रार्थना करता है।   एक दूसरे सूट में  जुआरी  सब कुछ खोकर दूसरे के मकान में शरण लेता है और दूसरे की अच्छी मकान देख कर उससे बहुत दुख होता है।  छांदोग्य उपनिषद में भी मकानों का निजी संपत्ति के रूप में वर्णन किया गया है।
ऋग्वेद के एक अन्य सूत्र  से ज्ञात होता है कि  गांव यह सभी पशु   ग्वाले को चराने के लिए दिए जाते थे।  इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि चारागाह में अपने पशु धार गांव की सभी निवासियों को था और   चारागाह    को सबकी  सम्मिलित संपत्ति समझा जाता था
अमरकोश में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख है  उपजाऊ(उर्वरा) , बंजर ( ऊऊसर)  रेगिस्तान (मरू), परती  (अप्रहत) ,  घास के मैदान (शादावल), कीचड़(पंकिल),  पानी भरी(जल प्राय मनुपाम) , पानी के निकट  की(कच्छ),  कंकरीली(शार्कला) ,  रेतीली,  नदी से सिंची  जाने वाली  वर्षा के जल से सिंची  जाने वाली।



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